हौज़ा न्यूज़ एजेंसी के अनुसार ,एक रिपोर्ट के अनुसार ,माहे जमादी उस सानी की बीसवीं तारीख थी सुबह की पहली किरण आगोश ए नूर में जलवा अफ़रोज़ थी। शबनम की ख़ुशबू और ओस की चमक से मदीना का मौसम बड़ा सुहाना था लैलतुल-क़द्र का नूर-ए-जली, मतला-ए-फ़ज्र की सूरत में हिजाब-ए-क़ुदरत से निकलकर मलीक़तुल-अरब की आगोश में मंज़र-ए-शहूद पर आ रहा था।
मलिका-ए-शुजात ने ज़मीन-ए-अरब पर पहला क़दम रखा तो क़ुरैश के बुतों के दिल दहलने लगे।
जो लोग "अबतर" का ताना देते थे, उनके चेहरे उतर गए। "मक़तूअल-नसल" कहने वालों की अपनी नस्लें नष्ट हो गईं। उनकी ज़ुबानें खामोश हो गईं। अरब की गंदी, गदली सोच रखने वाले ओछे और नीच लोगों के चेहरों पर क़ुदरत ने नन्हे-नन्हे क़दमों से ऐसा तमाचा मारा कि उनके मुँह टेढ़े हो गए।
वह ज़ात-ए-लाजवाब, मबदाए-रहमत (दया का स्रोत), जिसने रहमतुल-लिल-आलमीन (संसार के लिए दया) के दामन में असली रहमत भेजी, ने साबित कर दिया कि उस ज़ात की फ़ज़ीलत (श्रेष्ठता) और मुहब्बत के इकरार के बिना किसी नबी की नुबूवत मुकम्मल नहीं होती।
इमाम बाकिर (अ.स.) का कथन है:
“किसी नबी की नुबूवत तब तक मुकम्मल नहीं होती, जब तक वह उसकी फज़ीलत और मुहब्बत का इकरार न करे।”
सैयदा आलमियान (फ़ातिमा ज़हरा स.) का इस दुनिया में आना और अपनी मौजूदगी की बरकत से अरब में बेटियों की इज़्ज़त को बहाल करना, इतिहास की नज़रों से छिपा नहीं है।
जिस दौर में आपकी विलादत हुई, वह बेहद खौफनाक समय था। नबी-ए-रहमत (स.) के ऐलान-ए-बैसत को सिर्फ़ पाँच साल ही गुज़रे थे। हर तरफ़ दुश्मनी और मुखालिफत का बाज़ार गर्म था। क़ुफ़्र और शिर्क की ज़हरीली हवाएँ चल रही थीं। यहूद-ओ-नसारा की साज़िशें अपने चरम पर थीं। पूरा अरब दुश्मनी पर उतारू था।
मलिका-ए-अरब (बीबी ख़दीजा स.) की स्थिति:
वह मलिका, जिसके पास हजारों कनीज़ों की भीड़ रहती थी। वह, जिसके इशारे पर हर ख्वाहिश पूरी हो जाती थी। लेकिन जब उनकी बेटी (सैयदा फ़ातिमा स.) की पैदाइश हुई, तो अरब की औरतों ने उनसे किनारा कर लिया। उस समय की तन्हाई और मुश्किलें सोचने लायक हैं।
लेकिन अल्लाह की रहमत ने अपने हबीब (स.) पर करम किया और जन्नत की औरतों को बीबी ख़दीजा (स.) की खिदमत के लिए भेजा। फिर क़ुदरत ने ताना देने वालों के मुँह पर ज़ोरदार तमाचा मारा और "अबतर" का ताना देने वाले को खुद "मक़तूअल-नसल" बना दिया।
अल्लाह का सबक:
जब अल्लाह चाहता है, तो बेटियों के ज़रिये नस्ल को जारी रखता है। उसने बेटी (फ़ातिमा स.) के जरिये नबी (स.) की नस्ल को "कोसर" का दर्जा दिया, जबकि दस बेटों वाले को नस्लहीन कर दिया। यह क़ुदरत का सबक है कि बेटा-बेटी में फर्क न किया जाए।
आज उस "कोसर" (सैयदा फ़ातिमा स.) की बरकत से पूरी दुनिया में सादात (पैगंबर की औलाद) की नस्लें फल-फूल रही हैं। यह अल्लाह के वादे का सबूत है। चाहे जितना भी इस दरख़्त की शाखों को काटने की कोशिश की गई, यह हमेशा कायम रहा।
सादात से दुश्मनी और मलिका-ए-अरब की शान
सादात से दुश्मनी दरअसल अस बिन वाइल की अबतर नस्ल के बाकी बचे काले कारनामों का नतीजा है। एक सैयद को यह शरफ (गौरव) तो हासिल है कि वह उस पवित्र शजर का हिस्सा है। हालांकि, अच्छाई और पवित्रता का किरदार उसे हीरा बना देता है, और बुरे चरित्र वाले लोग इस महान वंश की ऊंचाई से गिर जाते हैं।
सैयदा (स.) का नूर से आंखें खोलना:
जिस दौर में सैयदा फ़ातिमा ज़हरा (स.) ने इस दुनिया में क़दम रखा, वह अंधेरों और दुश्मनी की सर्द घुटन से भरा हुआ था। हर तरफ़ नफ़रतों की काली आंधियां चल रही थीं। नीच नस्लें अपनी नीचता दिखाने में जुटी थीं। इस्लाम के ख़िलाफ़ साज़िशें अपने चरम पर थीं।
वह लोग, जिनकी भुखमरी खदीजा (स.) के दर से खत्म होती थी, अब उन्हीं के दर पर दुश्मनी का जहर उगलने लगे। वह, जिनकी ग़रीबी खदीजा (स.) के धन से दूर हुई थी, अब अपनी अमीरी का ढोंग रचाने लगे। लेकिन अल्लाह की करामत देखिए, उस दौर की सबसे धनवान महिला, मलिका-ए-अरब, ने सब कुछ अल्लाह की राह में दे दिया और तीन साल तक शिब-ए-अबी तालिब (संकट) में भूख और मुश्किलें सहन कीं।
सैयदा (स.) के घर का सुकून और करामत:
सैयदा ज़हरा (स.) ने अपनी मां की गोद में सब्र और शुक्र की जो झलक देखी, वह उनके किरदार का हिस्सा बन गई। उनका घर हमेशा ईमान और पाकीज़गी की मिसाल बना रहा। अगर गरीबी ने उनके घर का दरवाज़ा खटखटाया, तो भी उनके आंगन में शानो-शौकत और पाकदामनी का ही कब्ज़ा रहा।
सैयदा (स.) की महानता का बयान:
उनकी महानता को बयान करना इंसानी ताकत के बाहर है। उनका किरदार, उनकी सुगंध, जन्नत के फूलों की महक जैसा है। वह तख्त-ओ-ताज पर नहीं, बल्कि अल्लाह की इबादत और हुस्न-ए-अख़लाक़ (चरित्र की सुंदरता) पर चमकती थीं। उनके दर पर मोअत्तर होकर शब्द अपनी खूबसूरती को पाते हैं।
सैयदा (स.) की शिक्षा हर युग की महिलाओं के लिए मशाल-ए-राह:
सैयदा फ़ातिमा ज़हरा (स.) ने अपनी ज़िंदगी के हर पहलू से यह दिखाया कि सब्र, शुक्र, और अल्लाह पर भरोसा इंसान को किस ऊंचाई तक पहुंचा सकता है। उनकी पाक ज़िंदगी हर युग की महिलाओं के लिए एक रोशनी है, जो उन्हें सही राह दिखाती है।
दुआ:
अल्लाह से दुआ है कि वह हमें सैयदा फ़ातिमा ज़हरा (स.) की सीरत पर चलने की तौफीक दे और उनकी तालीमात को समझने और अपनाने की काबिलियत अता करे।
सभी मोअलियान-ए-हैदर (अ.) को जनाब-ए-सैयदा फ़ातिमा ज़हरा (स.) की विलादत की मुबारकबाद
मौलाना गुलज़ार जफारी:
हवाले:
1. आवालेम उल-उलूम वल मआरेफ वल अहवाल (जिल्द 11, पृष्ठ 161)
2. सूरह कोसर, आयत 3
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